@@INCLUDE-HTTPS-REDIRECT-METATAG@@ एक पूरे युग के प्रत्यक्षदर्शी थे बलराज मधोक: पद् मश्री ज. ला. कौल

एक पूरे युग के प्रत्यक्षदर्शी थे बलराज मधोक: पद् मश्री ज. ला. कौल

पद् मश्री जवाहर लाल कौल, अध्यक्ष, जम्मू कश्मीर अध्ययन केंद्र (जे.के.एस.सी.)

प्रोफेसर बलराज मधोक का 96 वर्ष की आयु में जाना एक पूरे युग के की उठापटक के चश्मदीद गवाह का छिन जाना है । बलराज मधोक ने जम्मू-काश्मीर को तब से समझना आरम्भ किया जब भारत के विभाजन की योजनाए बन रही थी, वे तब जवान हुए जब जम्मू-काश्मीर को बलात छीनने की समरनीति तय की जा रही थी। उन का षडयंत्रकारियों से आमना सामना तब तक होता रहा जब लगभग सब, राजनेता, सरकार और समरनीतिकार हथियार छोड चुके थे।  1948 में जब हरि सिंह स्ट्रीट के मकान की दूसरी मंजिल से वे किसी तरह बच निकलने में सफल हुए तब से वे अपने  भाषणों, अपने लेखों और अपनी दर्जनों पुस्तकों में यही कहते रहे हैं कि काश तब बात सुनी होती, तब नहीं सुनी अब भी समझ लेते तो बहुत कुछ हो सकता था। बलराज जी, जैसे उन के मित्र उन्हें पुकारते थे काश्मीरी तो नहीं थे लेकिन काश्मीर ही उन का कर्मक्षेत्र बन गया था और यह नियति ने पहले से तय कर दिया था। उन के पिता जम्मू-काश्मीर राज्य के ही कर्मचारी थे और उस समय रियासत में ही थे जब बलराज का जन्म हुआ। वे बतिस्तान के अकेने कसबे स्कर्दू में पैदा हुए। लाहौर और जम्मू दो ऐसे नगरों में उन्होने शिक्षा पाई जहाँ उन दिनों इक्बाल की ‘काश्मीर कमीटी’ की शह पर काश्मीर को प्रस्तावित पाकिस्तान का हिस्सा बनाने का षडयंत्र रचा जा रहा था। 1947 में अगर काश्मीर सिक्के का एक पक्ष शेख अब्दुल्ला थे तो दूसरा पक्ष बलराज मधोक। इसीलिए सत्ता पर अधिकार जमाते ही अब्दुल्ला ने उन्हे गिरफ्तार करने का आदेश दिया।


बलराज जी अदम्य साहस और जीवट को व्यक्ति थे। अपने राजनैतिक जीवन के अल्प काल में ही वे तीन ऐसी संगठनों को जन्म देने में सहायक सिध्द हुए जो आगे चल कर भारतीय राजनीति के लिए महत्त्वपुर्ण बदलाव का कारक बनी। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भरतीय जन संघ और जम्मू-काश्मीर प्रजा परिषद के गठन में बलराज मधोक की भूमिका कोई नहीं नकार सकता।

राष्ट्रीय राजनैतिक दल जल धाराओं की तरह होते हैं जो निकलती तो अलग अलग दिशाओं में हैं लेकिन जब मिलती है तो विराट नदी बनाती है । इस यात्रा में प्रायः कुछ धाराएं अलग दिशा मे छिटक जाती है। यही जनसंघ के साथ भी हुआ। बलराज मधोक और उन के साथी कई मामलो पर सहमत नही रह सके।  बलराज का जीवन  कटु अनुभवों से गुजरा था, उन्हों ने षडयंत्रों को सामने से देखा था ओर उन के लिए दो टूक टूक बात करने और विचारधारा में किसी प्रकार के समझौते के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी। विकासमान जनसंघ अब पूरे देश की बहुविध समस्याओं के प्रभाव में एक मद्यमार्ग का अनुसरण करने लगा थी। मधोक के अनुसार यह वामपंथ की और झुकाव था। मधोक को पार्टी छोडनी पडी।

लेकिन अलग होने पर भी मधोक निष्क्रिय नही रहे। अपनी लेखनी को उन्होंने कभी विराम नही दिया। बलराज जी उन नेताओं में से थे जो लगभग पैदाइशी लडाकू होते हैं और मृत्यू की शैया तक लडाकू ही रहते हैं।  अपने याद के रूप में लगभग दर्जन भर पुस्तकें पीछे छोड़ गए। उनकी आत्मकथा और उन का उपन्यास जीत या हार अपने दौर के आईने हैं जिन में वे सारे षडयंत्र वह सारी अदूरदर्शिता साकार हो उठती है।